गुप्त साम्राज्य का उद्भव और विकास (प्राचीन भारत का इतिहास)

पृष्ठभूमि

 

मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद, सातवाहन और कुषाण दो बड़ी शक्तियों के रूप में मौ उभरे। सातवाहनों ने दक्कन और दक्षिण में स्थायित्व लाने का काम किया। उन्होंने इन दोनों क्षेत्रों में रोमन साम्राज्य के साथ अपनी व्यापारिक शक्ति के बल पर राजनीतिक एकता और आर्थिक समृद्धि प्राप्त की। उत्तर में कुषाणों ने भी यही भूमिका निभाई। अन्ततः तीसरी शताब्दी के मध्य तक इन दोनों साम्राज्यों का भी पतन हो गया।

 

कुषाण साम्राज्य के खण्डहर पर एक नया साम्राज्य उभरा, जिसने कुषाणों की पूर्ववर्ती सत्ता के एक बहुत बड़े महत्त्वपूर्ण हिस्से पर अपनी सत्ता स्थापित की। यह था गुप्तों का साम्राज्य। जो वैश्य मूल के रहे होंगे। धर्मशास्त्रों में विभिन्न वर्गों के लिए अलग-अलग उपाधियाँ दी गई थीं। शर्मन या मांगलिक उपाधियाँ ब्राह्मणों के लिए; क्षत्रियों के लिए वर्मन या सशस्त्र; वैश्यों के लिए गुप्ता या गुप्त (संरक्षित) और शूद्रों के लिए दास या सेवक निर्धारित थीं। यद्यपि गुप्त साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य जैसा विशाल नहीं था, लेकिन उत्तर भारत की राजनीतिक एकता को इसने एक शताब्दी से अधिक समय तक (सन् 335 से 455 तक) बनाए रखा। तीसरी शताब्दी के अन्त में बिहार और उत्तर प्रदेश भी गुप्त साम्राज्य के क्षेत्र हो गए थे। बिहार की तुलना में उत्तर प्रदेश गुप्तों के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण प्रान्त रहा, क्योंकि गुप्त काल के प्राचीन सिक्के और अभिलेख बड़े पैमाने पर इसी राज्य में पाए जाते हैं। कुछ सामन्तों और निजी व्यक्तियों को छोड़ दें, जिनके अभिलेख मुख्यतः मध्य प्रदेश में मिलते हैं, तो गुप्तकालीन प्राचीन वस्तुओं की खोज के लिए उत्तर प्रदेश सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। प्रतीत होता है कि उत्तर प्रदेश को गुप्तों ने अलग-अलग दिशाओं में अपना साम्राज्य चलाने के लिए प्रयोग में लाया। प्रयाग में उनकी शक्ति का मुख्य केन्द्र होने के कारण, उनका विस्तार पड़ोसी क्षेत्रों भी हुआ।

 

सम्भवतः कुषाण काल में गुप्त, उत्तर प्रदेश के कुषाणों के सामन्त थे, जिन्होंने बहुत कम समय में अत्यधिक सफलता हासिल की और बाद में कुषाणों के उत्तराधिकारी भी बन बैठे। उत्तर प्रदेश और बिहार के कई उत्खनन स्थलों से कुषाण काल की प्राचीन वस्तुओं के ठीक बाद ही गुप्त काल की प्राचीन वस्तुओं का मिलना यहीं प्रदर्शित करता है। सम्भव है कि गुप्त काल के लोगों ने कुषाणों से घोडे की काठी, लगाम, बटन वाला कोट, पतलून और जूते का उपयोग करना सीख लिया। इनसे उनकी गतिशीलता बढी और वे उत्कृष्ट घुड़सवार बन गए। कुषाण काल में ही घोडे वाले रथ और हाथियों का महत्त्व घटने लगा था और घुड़सवारों की भूमिका मुख्य हो चली थी। गुप्तों के साथ भी ऐसा ही था। इनके सिक्कों पर घुड़सवारों का प्रतिनिधित्व है। हालाँकि गुप्त काल के कुछ राजाओं को उत्कृष्ट और बेजोड़ महारथी यानि रथ वाले योद्धाओं के रूप में वर्णित किया गया है, फिर भी घोड़ों का इस्तेमाल इनकी मुख्य ताकत थी।

 

गुप्तों को कुछ सुविधाएँ अपने-आप मिली हुई थीं। उनके कार्यों का मुख्य केन्द्र बिहार एवं उत्तर प्रदेश के मध्य क्षेत्र की उपजाऊ भूमि था, वे मध्य भारत और दक्षिण बिहार के लौह अयस्कों का इस्तेमाल करने में सक्षम थे। इसके अलावा, उन्होंने उत्तरी भारत के उन इलाकों से अपनी निकटता का फायदा उठाया, जिनका पूर्वी रोमन साम्राज्य के साथ रेशम व्यापार होता था और जिसे बाइजेण्टाइन साम्राज्य भी कहा जाता था। इन अनुकूल कारकों के कारण, गुप्त ने अनुगंगा (मध्य गंगा-घाटी में गंगा के किनारे-किनारे), प्रयाग (वर्तमान इलाहाबाद), साकेत (आधुनिक अयोध्या) और मगध पर अपना शासन स्थापित किया। समय बीतने के साथ, यह साम्राज्य सम्पूर्ण भारतीय साम्राज्य बन गया। उत्तर भारत में कुषाण की सत्ता सन् 230 के आस-पास समाप्त हो गई और फिर मध्य भारत का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा मुरुण्डों के अधीन हो गया, जो सम्भवतः कुषाणों के रिश्तेदार थे। मुरुण्डों ने सन् 250 तक शासन किया। पच्चीस साल बाद, सन् 275 में यहाँ पर भी गुप्त राजवंश सत्ता में आ गया।

 

चन्द्रगुप्त प्रथम (सन् 319-34)

 

गुप्त वंश के पहले प्रसिद्ध राजा चन्द्रगुप्त प्रथम थे। उन्होंने लिच्छवी की राजकुमारी से शादी की, जो सम्भवतः नेपाल की थी। इससे उनकी सत्ता और मजबूत हुई। गुप्त लोग शायद वैश्य थे और इसलिए क्षत्रिय परिवार में उनकी शादी से उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा भी मिली। चन्द्रगुप्त प्रथम एक महान शासक माने जाते हैं, क्योंकि उन्होने सन् 319-20 में अपने शासन की शुरुआत से गुप्त युग की शुरुआत की। बाद में कई अभिलेखों का समय निर्धारण इसी गुप्त संवत से किया गया मिलता है।

 

समुद्रगुप्त (सन् 335-80)

 

चन्द्रगुप्त के पुत्र और उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त (सन् 335-80) ने गुप्त साम्राज्य को व्यापक विस्तार दिया। वे अशोक के विपरीत थे। अशोक शान्ति और अनाक्रमण की नीति में विश्वास करते थे, लेकिन समुद्रगुप्त हिंसा और विजय में प्रसन्न होते थे। उनके दरबारी कवि हरिसेना ने अपने आश्रयदाता की विजयगाथा में एक चमत्कृत करने वाला लेख लिखा।

एक अन्य लम्बे अभिलेख में, कवि ने समुद्रगुप्त द्वारा विजित लोगों और देशों के बारे में गिनाया है। इलाहाबाद में यह अभिलेख शान्ति प्रिय अशोक के अभिलेखीय स्तम्भ पर ही लिखा गया है।

 

समुद्रगुप्त द्वारा विजित स्थानों और देशों को पाँच समूहों में विभाजित किया जा सकता है। पहले समूह में गंगा-यमुना दोआब के शासक थे, जिन्हें पराजित कर उनके राज्यों को गुप्त साम्राज्य में शामिल कर लिया गया। दूसरे समूह में पूर्वी हिमालयी राज्यों के शासकों के साथ ही नेपाल, असम और बंगाल जैसे कुछ सीमावर्ती राज्य, जिन्हें समुद्रगुप्त की शक्ति का एहसास कराया गया। इसमें पंजाब के कुछ गणराज्य भी शामिल थे। मौर्य साम्राज्य के विनाश के बाद बचे हुए गणराज्य, अन्ततः समुद्रगुप्त द्वारा कुचल दिए गए। तीसरे समूह में विन्ध्य क्षेत्र में स्थित वनों के साम्राज्य थे, जिन्हें अत्विका राज्यों के रूप में जाना जाता है। समुद्रगुप्त ने इन्हें भी अपने अधीन कर लिया। चौथे समूह में पूर्वी दक्कन और दक्षिण भारत के बारह शासक थे, जिन्हें हराकर छोड़ दिया गया। समुद्रगुप्त की पहुँच तमिलनाडु में काँची तक हो गई थी, जहाँ पल्लवों को गुप्त अधीनता स्वीकार करने पर मजबूर किया गया। पाँचवे समूह में शक और कुषाण थे, उनमें से कुछ अफगानिस्तान में शासन कर रहे थे। ऐसा कहा जाता है कि समुद्रगुप्त ने उन्हें सत्ता से उखाड़ फेंका और दूर-दूर तक के शासकों को अपने अधीन कर लिया। समुद्रगुप्त का प्रभाव और प्रतिष्ठा भारत के बाहर भी फैली। एक चीनी स्रोत के अनुसार, श्रीलंका के शासक मेघवर्मन ने गया में एक बौद्ध मन्दिर बनाने की अनुमति के लिए समुद्रगुप्त के पास एक दूत भेजा था। अनुमति दे दी गई और यह मन्दिर एक विशाल मठ के रूप में विकसित हुआ। इलाहाबाद के प्रशस्ति (प्रशंसनात्मक) अभिलेखों की मानें, तो पता चलेगा कि समुद्रगुप्त कभी नहीं हारा। उनकी बहादुरी और सैन्य क्षमता के कारण उन्हें भारत का नेपोलियन कहा जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि समुद्रगुप्त ने बलपूर्वक भारत के एक बड़े हिस्से को जीतकर एकता की जंजीर से बांधा, जिससे अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले उनकी शक्ति विजित क्षेत्र के बाहर भी बहुत बड़े क्षेत्र में महसूस की गई।

 

चन्द्रगुप्त द्वितीय (सन् 380-412)

 

चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में गुप्त साम्राज्य अपने शिखर पर पहुँचा। उन्होंने विजय और वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा साम्राज्य का विस्तार किया। चन्द्रगुप्त ने अपनी बेटी प्रभावती का विवाह एक ब्राह्मण जाति के वाकाटक राजकुमार से किया, जो कि मध्य भारत पर शासन करता था। राजकुमार की मृत्यु हो गई, तो उनके अल्पायु बेटे ने उत्तराधिकार सँभाला। इस प्रकार प्रभावती अप्रत्यक्ष शासक बनीं। उनके कुछ भूदान-घोषणा-पत्रों, जिन पर स्पष्टतः गुप्त लेखन शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, से पता चलता है कि उन्होंने सदैव अपने पिता चन्द्रगुप्त के हितों को बढ़ावा दिया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने मध्य भारत में वाकाटक साम्राज्य पर अप्रत्यक्ष शासन किया, जिससे उन्हें बहुत लाभ हुआ। इस क्षेत्र में उनके प्रभुत्व के कारण, चन्द्रगुप्त द्वितीय ने कुषाणों से मथुरा को जीत लिया। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह हुई कि उन्होंने लगभग चार शताब्दियों तक शक क्षत्रपों के अधीन रहे पश्चिमी मालवा और गुजरात पर कब्जा कर लिया। इस विजय से चन्द्रगुप्त ने व्यापार और वाणिज्य के लिए प्रसिद्ध पश्चिमी समुद्र तट को नियन्त्रित किया। जिससे मालवा और उसका प्रमुख शहर उज्जैन समृद्ध हुआ। ऐसा लगता है कि उज्जैन को चन्द्रगुप्त द्वितीय ने दूसरी राजधानी बना ली थी।

 

चन्द्र नामक राजा के कारनामों की गौरव गाथा दिल्ली में कुतुबमीनार के निकट लौड स्तम्भ पर उल्लिखित है। अगर चन्द्र को चन्द्रगुप्त द्वितीय मानें, तो यह ज्ञात होगा कि उन्होंने उत्तर-पश्चिमी भारत और बंगाल के व्यापक हिस्से में गुप्त शासन स्थापित किया था। हालाँकि, स्तम्भ के अभिलेख अतिरंजित लगते हैं।

 

चन्द्रगुप्त द्वितीय ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की, जिसे ई.पू. 58-57 में उज्जैन शासक ने पश्चिमी भारत के शक क्षत्रपों पर विजय के रूप में धारण किया था। इस उज्जैन शासक को पारम्परिक रूप से शकरी या शकों का दुश्मन कहा जाता है। विक्रम संवत या युग शकरी द्वारा ई.पू. 58-57 में शुरू किया गया था। हालाँकि, चन्द्रगुप्त द्वितीय उससे भी बड़ा शकरी और विक्रमादित्य साबित हुआ। उज्जैन में चन्द्रगुप्त द्वितीय का दरबार कालिदास और अमर सिंह जैसे कई विद्वानों से सुशोभित था।

 

चन्द्रगुप्त के शासनकाल में ही चीनी तीर्थयात्री फा-हियान (सन् 319-414) ने भारत का दौरा किया और यहाँ के लोगों के जीवन का विस्तृत विवरण लिखा।

 

साम्राज्य का पतन

 

चन्द्रगुप्त द्वितीय के उत्तराधिकारियों को पाँचवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मध्य एशिया के हूणों के आक्रमण का सामना करना पड़ा। हालाँकि शुरू में गुप्त राजा स्कन्दगुप्त ने हूणों के आगमन को भारत में आने से रोकने के प्रभावी उपाय किए, किन्तु उनके उत्तराधिकारी कमजोर साबित हुए और हूण आक्रमणकारियों का सामना करने में असमर्थ प्रतीत हुए, क्योंकि वे घुड़सवार और धातु के रकाबों के इस्तेमाल में माहिर थे। वे फुर्तीले थे और उत्कृष्ट धनुर्धारियों के रूप में वे केवल ईरान ही नहीं, बल्कि भारत में भी पर्याप्त सफलता हासिल कर चुके थे।

 

सन् 485 तक, हूणों ने पूर्वी मालवा और मध्य भारत के बड़े हिस्सों पर कब्जा कर लिया, जहाँ उनके अभिलेख पाए गए हैं। पंजाब और राजस्थान जैसे मध्यवर्ती क्षेत्र भी उनके हाथ चले गए। इस कारण छठी शताब्दी की शुरुआत में गुप्त साम्राज्य की सीमा बहुत सीमित हो गई। यद्यपि मालवा के औलिकर सामन्त परिवार के यशोधर्मन ने शीघ्र ही हूणों को पराजित कर दिया और गुप्त सत्ता को भी चुनौती दी और सन् 532 में लगभग पूरे उत्तर भारत में अपनी विजय की याद में एक स्तम्भ स्थापित किया। यशोधर्मन का शासन अल्पकालीन था, लेकिन उन्होंने गुप्त साम्राज्य की नींव हिलाकर रख दी।

 

सामन्तों के उद्भव के बाद गुप्त साम्राज्य का महत्त्व और घटा। उत्तर बंगाल और समतट या दक्षिण-पूर्व बंगाल में गुप्त राजाओं द्वारा नियुक्त राज्यपालों और सामन्तों ने खुद को स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया। मगध के उत्तरकालीन गुप्तों ने बिहार में अपनी सत्ता स्थापित की। उनके साथ ही, बिहार और उत्तर प्रदेश में मौखरि वंश के लोगों ने सत्ता बनाई, जिसकी राजधानी कन्नौज थी। ऐसा लगता है कि बिहार और उत्तर प्रदेश सन् 550 आते-आते गुप्त के हाथों से निकल चुके थे। छठी शताब्दी की शुरुआत में, हम देखते हैं कि उत्तरी मध्य प्रदेश में वहाँ के राजाओं ने अधिकारपूर्वक भूमि अनुदान के शासनपत्र जारी करना शुरू कर दिया था, हालाँकि उन्होंने अपने दस्तावेजों में गुप्त-संवत का ही इस्तेमाल किया। वलभी के शासकों ने गुजरात और पश्चिमी मालवा में अपना अधिकार स्थापित किया। स्कन्दगुप्त (सन् 467) के शासन के बाद, शायद ही कोई गुप्त सिक्का या अभिलेख पश्चिमी मालवा और सौराष्ट्र में पाया गया हो। पाँचवीं शताब्दी के अन्त तक आते-आते पश्चिमी भारत में भी उन्होने अधिकार खो दिया, जिससे गुप्तों के व्यापार और वाणिज्य में राजस्व का बड़ा नुकसान हुआ और आर्थिक रूप से वे पंगु हो गए। दूसरी तरह उत्तर भारत में, थानेसर के राजकुमार ने हरियाणा में अपनी शक्ति स्थापित की और फिर धीरे-धीरे कन्नौज की तरफ बढ़ते गए।

 

धार्मिक और अन्य उद्देश्यों के लिए भूमि अनुदान की बढ़ती प्रथा के कारण गुप्त साम्राज्य का कर क्षेत्र कम होता जा रहा था। जिससे एक बड़ी सेना को बनाए रखना मुश्किल हो गया। राजस्व पर भी नकारात्मक असर पड़ना तय था। विदेशी व्यापार में गिरावट से उनकी आय भी कम हो गई। सन् 473 में रेशम बुनकरों का एक संगठन गुजरात से मालवा चला गया और अन्य पेशा अपना लिया जिससे साफ पता चलता है कि उनके द्वारा निर्मित कपड़ों की कोई माँग नहीं रह गई थी। गुजरात व्यापार से लाभ धीरे-धीरे गायब हो गया था। पाँचवीं शताब्दी के मध्य के बाद, गुप्त राजाओं ने शुद्ध सोने को कम करके अपनी स्वर्ण मुद्रा बनाए रखने के हरसम्भव प्रयास किए, लेकिन इससे कोई लाभ नहीं हुआ। यद्यपि छठी शताब्दी तक गुप्त साम्राज्य का शासन रहा किन्तु इस महान साम्राज्य का शाही गौरव एक शताब्दी पहले ही खत्म हो चुका था।

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